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एक बून्द इत्र / आरती मिश्रा
Kavita Kosh से
जैसे बून्द भर इत्र
बिखर गई हो मेज़पोश पर
जैसे छलक गया हो प्याला शराब का
ऐसी ही कोई मिलीजुली सी
गमक
फैल गई है मेरे भीतर
मैं अभी इतनी फुरसत में नहीं कि
नफ़ा-नुक़सान को माप-तौल सकूँ