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एक मरणासन्न व्यक्ति के समीप / रमेशचन्द्र शाह
Kavita Kosh से
सभी दिशाओं से यह किसका सिमट रहा है जाल?
डूब रहा यह कौन ढूँढता अपना ही पाताल?
लहर टूट जुड़ रही वहाँ, ज्यों लहरों में हों लोग
जान चुका, था जिन्हें जानना? सचमुच वे संजोग
फेंट रहे होंगे अब भी तो कहीं किसी के हाथ
पहुँचाता क्या प्रलय इसी बिध फिर अपनों के साथ?
दिवस- मास-संवत्सर बीते, बीते कितने अब्द
रह जाता हर बार शेष जो,--यही, यही क्या लब्ध
बन अदृष्ट फिर दस्तक देगा बन्द सृष्टि के द्वार?
छूटा हुआ पकड़ लेने को फिर कोई आकार
बासी पड़ जाती हर दुनिया झलका कर कुछ सार
एक नया प्रारंभ और फिर, जाने कितनी बार
चुका नहीं जो अब तक इसका, कैसा वह प्रारब्ध?
जाते जाते इसे घेर फिर क्यों बैठे ये शब्द?