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एक मुक्तक-बापू के प्रति / लाखन सिंह भदौरिया

बापू की मृदु मुस्कानों पर कितने गुलाब कर रहे नमन।
अर्पन होने को अकुलाया है इस धरती का सुमन-सुमन।
पिघला सविता का तेज, हँसी में ज्योति नदी बह उठी सहज-
भीगी-भीगी है प्रात, नयन की नीली-गीली किरन-किरन।