बापू की मृदु मुस्कानों पर कितने गुलाब कर रहे नमन।
अर्पन होने को अकुलाया है इस धरती का सुमन-सुमन।
पिघला सविता का तेज, हँसी में ज्योति नदी बह उठी सहज-
भीगी-भीगी है प्रात, नयन की नीली-गीली किरन-किरन।
बापू की मृदु मुस्कानों पर कितने गुलाब कर रहे नमन।
अर्पन होने को अकुलाया है इस धरती का सुमन-सुमन।
पिघला सविता का तेज, हँसी में ज्योति नदी बह उठी सहज-
भीगी-भीगी है प्रात, नयन की नीली-गीली किरन-किरन।