एक समानान्तर यात्रा / रेखा

हर सुबह
मन की किसी दिशा में
उगता है
एक सूरज
उसे रस्ता देने के लिए
धकेलने लगती हूँ अपनी सीमाएँ
आकाश के
दिगंत विस्तार में

हर सुबह
रात के सपने का
एक-टुकड़ा बीज देती हूँ
मन में
ताकि
मेरे मन में
उगे सूरज की किरणें
पाल सकें उसे

पर न जाने क्यों
सपने में लचीले
हरे कोंपल नहीं फूटे
उग आये हैं तीख़े काँटे
और तार-तार कर दिया है
सूरज की हर किरण को

दोपहर के
दर्प भरे सूरज की उपेक्षा में
जब मन के सूरज को
एड़ लगाती हूँ
तो शीशे-सी चटख़ जाती है
हर किरण

दिन के अवसान पर जब
जीते हुए महारथी-सा सूरज
पहुँचता है पड़ाव पर
मेरे मन का सूरज
अकुलाने लगता है
मन में ही डूब जाने को
उसे बाहों में भरने के लिए
समेट लेती हूँ
अपनी सभी सीमाएँ

और जब
सहेज लेता है
सूरज को सुनहरे फूल की तरह
क्षितिज का विस्तार
मेरे मन का
तार-तार किरणों वाला
ठंडा सूरज डूब जाता है चाय की प्याली में

1971

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