भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक सलोना बादल / सुनीता जैन
Kavita Kosh से
एक सलोना बादल छाया,
धुआँधार बरस कर
चला गया खाली-सा
ये खड्डे और खाई,
सहसा भर गए गले तक,
फिर वैसे ही सूख गए
पहले-सा
लेकिन जो भीतर
खींच लिया,
अंतस तक अपना
सींच लिया,
उस जल से
जल हो गई धरती
बाँहों में बादल
भींच लिया।