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ऐसे ताक रहे हो / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
ऐसे ताक रहे हो, जैसे, हो कब की पहचान!
तुमसे मेरी ममता ही क्या, तुमसे कब का भाव?
कहाँ लहर पर चढ़ी चाँदनी, कहाँ भँवर में नाव!
फिर, ऐसे भीने बाणों से क्यों मेरा संधान?
व्यर्थ बहा दोगे पानी में यदि इतना पीयूष,
तो हिम से जमकर सावन भी हो जाएगा पूस;
मेरी हैरानी कर देगी तुमको भी हैरान!
कितना अच्छा था तटस्थ ही; तुमसे परिचयहीन,
तुम अपना गाते, मैं अपनी अलग बजाता बीन;
कहाँ खींच लाए तुम तट से, लहरों के अरमान!