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ऐसे ही सब दिवस गये री! / स्वामी सनातनदेव

राग जोगकोश, तीन ताल 20.9.1974

ऐसे ही सब दिवस गये री!
मन में मनोरथ जो जो सो तो सब ही विफल भये री!
कछू भोग कछु जोग कियो, पै भाव न कोउ नये उनये री!
कलपत-विलपत ही वय बीती, नयना अबहुँ न सफल भये री!॥1॥
प्रीतम तक पहुँची न टेर कोउ, छटपटात ही प्रान रहे री!
विरहानल हूँ प्रबल न जाग्यौ, सुलगि-सुलगि ही प्रान दहे री!॥2॥
अब यह जरनि न सहन होत है, हारि पियाके चरन गहे री!
कृपा करें तो प्रान जुड़ावैं, अपने सब संकलप ढये री!॥3॥