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ओरछा का वन-खंड / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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विन्ध्यप्रान्त के मुक्ता-मण्डित कण्ठ-हार-सी,
वेत्रवती लगती गंगा की वारिधार-सी।
एक तीर से लेकर अपर तीर तक विस्तृत,
चँवर डुलाते जिसे लता-द्रुम खगकुल-कूजित।

कुंजर के समान पावस के मदोन्मत्त घन,
समलंकृत विद्युन्मालाओं से अभिनूतन।
गर्जन करते अन्तरिक्ष में जोर-जोर से,
भरते निखिल भुवनमण्डल को घोर शोर से।

बहुविध श्यामकपिशसितगैरिक शिलाविभूषित,
रम्य ओरछा का वन नन्दनवन-सम शोभित।
गले मिल रहे जिसमें ऊँच-ऊँचे तरुवर,
कुटिल प्रभ´््जन के गति-इंगित से हिल-हिल कर।

पुरुष-पृथुल-क्षुर-वक्र धातु खण्डों से दुर्गम,
गिरिपयोधरा वसुन्धरा पर तिमिरलेख-सम।
शूकर, शाखामृग, शश, वृक, शार्दूल निषेवित,
लहराते हरितारुण पर्णाम्बर से मण्डित।

नाच रहे जिसमें मयूर सुन घनमृदंग-स्वर,
शिखण्डिनी के संग श्रवणप्रिय केकारव कर।
कुसुमविदीपित महीरुहों की ओर मनोरम,
उड़े जा रहे सवन, क्रौ´््च, वक विविध विहंगम।

चिकनी सघन-रुचिर रोमावलियों से भूषित,
चमकीले स्वर्णाभ बिन्दुओं से विभ्राजित।
कहीं प्रकट होते छिपते चरते सुन्दर मृग,
अम्बर से भूतल पर ज्यांे उतरे तारामृग।

विकसित जिसके हृदयेश पर श्रीफल, कुरबक,
अर्जुन, निम्ब, कदम्ब, चिरौल, शिरीष, कुरण्टक।
प्रणत भार से अमलतास, सागौन मनोहर,
छूते भुज शिखरों से भूतल को झुक-झुक कर।

धेनुकर्ण के सदृश प्रसूनोंवाली सुन्दर,
राधाकान्ता बरसाती मधु-बिन्दु निरन्तर।
गन्धराशि ले मन्दस´्चरण मलयसमीरण,
रमण के लिए आता वृक्षों के ढिग प्रतिक्षण।

यहाँ सर्ज की शाखाओं में हर्षमर्मरित,
उत्कीर्णित टटकी कलियों के गुत्स सुगन्धित।
वहाँ लटकते मधुर स्वादु फल रस से मिश्रित,
जम्बु वृक्ष के भुज-वन्दनवारों में गुम्फित।

झुके समर्पण के भंगों में इधर केवड़े,
लिए गन्ध-मकरन्दयुक्त फूलों के गजरे।
उधर रंग-छवि के समुद्र में डूबे करवन,
सिहर-सिहर उठते हर्षतिरेक से सहजन।

यहाँ विहरते कुरर, वसन्ते वहाँ पतेने,
कलरव करते चहा, पपीहे और बबूने।
इधर खोदते नकुल विवर झाड़ों में शोभन,
उधर कोटरों में बैठे भुजंग काढ़े फन।

यहाँ झूम झुक रहे सुघर सेमल के तोरण,
खड़े हुए ओढ़े तमाल काले अवगुण्ठन।
वहाँ मौलिश्री के प्रसून बिखरे भूतल पर,
लदे लाल किसलय के झुग्गे से गुलमोहर।

उड़ता सघन केतकी के कुंजों से सौरभ,
पके फलों से लगते आम्रविटप पिंगलप्रभ।
थपकी दे कर पवन छेड़ता तृणध्वज को जब,
मधुर-मधुर मर्मर ध्वनि उसमें से होती तब।

इन्द्रगोपिका कहीं अरुण विद्रुम-सी र´्जित,
वर्षा के जल से सि´्चित कुंजों में विलसित।
घनी डालियों में उन्मद भृंगों से झंकृत,

निबिड़ धूमण्डल-सम सरकण्डे के अंचल,
कँप-कँप उठते झंझा के झोंके से प्रतिपल।
खड़े उठाए प्रांशु शीर्ष स्कन्धों को पीपल,
आमंत्रण से पूर्ण नील अंजन-सम नरसल।

वनदेवी की स्मिति-सी भू पर सुधा छिड़कती,
मंगलमयी भार्गवी सुरतरुश्री को हरती।
लुभा रही करघई अनिन्दित सुषमावाली,
मुग्धा-सी बुनती नव सम्मोहन की जाली।

विविधाकार सुपर्णावलियों से संयोजित,
तिन्स, अशोक, पलाश, अगस्त्य प्रमत्त प्रहर्षित।
गगनांगन में तने घने वृक्षों के उभरे,
आलिंगन-बन्धन में वन-बेलों के जकड़े।

वन के अन्तराल में गुल्म-जाल से संवृत,
क्षितिज-छोर तक हरीतिमा का सिन्धु तरंगित।
रसमय परमानन्द वर्ण-आकृति धारण कर,
कुश-तृण-लता-वनस्पतियों में लोचनगोचर।

सब कुछ यहाँ प्रफुल्ल, सुषम, शोभन, प्रियदर्शन,
सरल, निष्कपट, अनिर्बन्ध, स्वच्छन्द, विलक्षण।
नहीं यहाँ अन्तर पर निरानन्द अवगुण्ठन,
अविश्रान्त संघर्ष यहाँ जीवन का दर्शन।

करते यदि न अलंकृत भूतल को वन-उपवन,
हो जाता तब निखिल भुवन मरुथल-सम निर्जन।
बरसाते जल नहीं गगनमण्डल में छा कर,
नील कमल-सम श्याम कान्तिवाले धाराधर।

बहती नहीं नियन्त्रित गति से वसुन्धरा पर,
सिन्धुगामिनी सरिता की धारा कल-कल कर।
व्याकुल जड़-चेतन को माता-सी नहलाती,
ऊर्मि-पताका पवनप्रेरणा से फहराती।

एकरूप हो निखिल राष्ट्र-संस्कृति में केन्द्रित,
जन-जीवन की विविधरूपता शतधा खण्डित।
जैसे रहते वनस्थली में तरुगण अगणित,
एक दूसरे से होकर संयुक्त, समन्वित।

(‘विशाल भारत’, अप्रैल, 1963)