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ओळूं नै अवरेखतां (1) / चंद्रप्रकाश देवल
Kavita Kosh से
दीठ रै मथारै माथलौ सोसनी आभौ
जिणरी मांयली टूक थारौ दरसाव हौ।
अेक पीरोजी धूवां रौ गोट हौ। आर-पार जिणरै दीसती आंख्यां ताकै। थूं ही, म्हारै आंख री कीकी कूड़ नीं भाखै। म्हैं कठै हौ जे बठै नीं हौ। इणरो छांण कुण काढै। जे कोनी हौ तो आज थारै ओळावै किणनै चितारूं हूं। कदैई दूजां रै ओळावै खुदोखुद री ओळूं करीजै। पण औ सोच-सोच मांय रौ मांय डरीजै-
कै थारै ठेट सपनां रै देस, म्हारौ
वेळा, कुवेळा निधड़क आव-जाव हौ।