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ओ मेरी अन्तिम नीरवता / वीरेन्द्र कुमार जैन

एक के पार एक
खुलते ही जाते हैं
नीरवता के अन्तराल,
इस वन के
अनाहत एकान्त में...

खुलते ही जाते हैं
गहन से गहनतर
भीतर से भीतर
नीरवता के गोपन कक्ष
एक के पार एक...
इस वन के अनाहत एकान्त में...
...और लो, छोर पर
खुल पड़ा अनायास
अन्तिम नीरवता का
नील लोक...
उसकी नीलमणि शिला पर
गहन विश्रब्धता में
बैठी हो तुम
कल्प-वृक्ष की छाया तले
ओ मेरी अन्तिम नीरवता!

रचनाकाल : 16 मई 1963