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औरत / नवीन सागर
Kavita Kosh से
यह जो
बच्ची सी दौड़ती आई थी मेरे भीतर कभी
भीतर जंगलों में खो गई अभी
बैठी है बाहर
खिड़की से देख रही आसमान
शहर के सिर पर जो चू रहा सुबह से
देखकर अचानक उसको
खामोश
बरसों की खामोशी चली गई सूनी लम्बान में
आंखों से मेरी औरत की आकृति तक
और विकल मन हुआ बुरी तरह
सोचती रही यह क्या बरसों से
ना तो यह कवि है
ना है यह जानवर!
दिल-दिमाग में इसके
कितना अंधेरा है दूर तक
जानूं मैं कैसे
इस औरत का संसार
भीतर से कैसा है!
दस्तक दूं हाथ कहां
दरवाजा कहां गया
औरत के भीतर जो गुम्बद है भीषण
दरवाजा कहां गया उसका!