भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
औरत / वर्षा गोरछिया 'सत्या'
Kavita Kosh से
खंडहर हो चुकी
पहली सदी की इमारत हूँ
खिड़कियाँ कहाँ
कहाँ दरवाज़े
अब नहीं मिलते
मुझसे गुज़रती अनहद सुरंगे
अन्दर बहुत अन्दर
गर्भ में कहीं
अब ज़रा सा पानी
एक किरण
और टिड्डियों के कुछ बिल
बचे हैं
मुझ तक पहुँचने से
डरते क्यूँ हो तुम
हे प्राणनाथ
या ईश कह लो
तुम्हारे ही शब्दों में
हमेशा गुज़र क्यूँ जाते हो मुझसे
सराय भी हूँ
तो तुम्हारी ही हूँ न
आसरा हूँ तुम्हारी
भूल क्यूँ जाते हो
कि मकाँ वही रहता है
ठहरो तो सराय घर बन जाए
ठहर के देखो कभी
ठहरते क्यूँ नहीं