भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
और कितने ज़ख़्म देगी ज़िंदगी / नमन दत्त
Kavita Kosh से
और कितने ज़ख़्म देगी ज़िंदगी।
क्या मुझे जीने न देगी ज़िंदगी।
फिर मोहब्बत चाक कर देगी जिगर,
हादसा फिर इक बनेगी ज़िंदगी।
ख़्वाब को परवाज़ देकर शाम से,
सुबह को पर काट लेगी ज़िंदगी।
थक गया हूँ, अब चला जाता नहीं,
किस जगह जाकर थमेगी ज़िंदगी।
ग़म मुक़द्दर बन गया "साबिर" मेरा,
और क्या इनआम् देगी ज़िंदगी।