भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
और हर हाथ / पद्मजा शर्मा
Kavita Kosh से
माना मैं होकर नाराज़
जाना चाहती हूँ दूर
बहुत दूर तुमसे
पर इतना नहीं कि
जहाँ से मुड़कर देखने पर
तुम न दिखो
माना मैं
रूठकर हो जाती हूँ चुप
नहीं बोलती तुमसे
लेकिन करोगे विश्वास
उस समय बहुत कुछ करना
चाह रही होती हूँ मैं
तुमसे
मेरे ‘चले जाओ’ कहने पर
जब तुम जा रहे होते हो
तब प्राण ! आत्मा में
उग आते हैं करोड़ो हाथ
और हर हाथ
बुला रहा होता है तुम्हें
अपने पास।