वह चाह रहा है
मैं कंप्यूटर बन जाऊं,
मैं हाड़-मांस का पुतला हूं
यह तथ्य उसे स्वीकार नहीं
मेरा हर संवेदन नकार
वह तुला हुआ है
मुझे मशीन बनाने पर!
बस, यही सोचता है
कंप्यूटर बन जाऊं
कर डालूं सारे गुणा-भाग, सब जोड़-घटा
तैयार आंकड़े भी उसके आगे रख दूं
या निखिल बनर्जी का सितार
बेगम अख्तर की ग़ज़ल उसे सुनवा डालूं
वह थक जाये तो उसका माथा सहलाऊं
कुछ प्यार करूं, बोलं-बतियाऊं, बहलाऊं
हर चीज सुरक्षित रख लूं मैं ‘मैमोरी’ में
जब उसका दिल चाहे तब उसको पेश करूं!
यह सब कुछ है स्वीकार मुझे
पर एक बड़ी कठिनाई है-
वह बस ‘कमांड’ ही देता है
लेकिन कुछ ‘फीड’ नहीं करता!