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कटिंग ज़िन्दगी / जोशना बनर्जी आडवानी
Kavita Kosh से
क्या क्रान्ति है कि
हल्दी, नमक, तेल, धनिया
जानते हैं अपने मिश्रण की मात्रा
क्या सभ्यता है कि
झींगुर, मेमने, गधे, ऊँट
समझते हैं अपनी कार्यप्रणाली
क्या गोरखधंधा है कि
प्रेम, परवाह, त्याग, स्नेह
इन्हें पनाह नही अनाथालय में भी
क्या मुर्दा चुप्पी है कि
देवालय, पहाड़, पेड़, नदी
न्यायपालिका के सदस्य नहीं रहें
क्या ज़लज़ला है कि
बम, सुहागा, लकड़ी, फ़ूस
आग लगा पाने की दूसरी शर्त है
क्या बेसुआदी है कि
मूँगबड़ियाँ, सौंठ, गुड़, मुरब्बे
दादी नानी की रसोई के कोने मे पड़ी हैं
क्या कौंध है कि
नींद की गोली, बढ़ता बीपी, नसकम्पन
रात के तीसरे पहर के इश्क में पड़े हैं
क्या कारोबार है कि
रंगमंच, पुस्तकालय, कवितायें
अर्थशास्त्र के विलोम ही रहेंगे सदा