220.
जगत जन त्यागिया हरी हि लागिया, तासु सर्वर न करि सकै कोई।
कया कम्मान गढ़ि प्रेम मैदान चढ़ि वान गुरु ज्ञान संधान आओ।
सहज शमशेर गहि साँगि संभालि असि पूर सन्तोष धपि उरध आओ।
छोड़ि पितु मातु परिवार सुत बंधु तिय, मया मद मोह बंधन छोड़ाओ।
भेषलै मर्म तजि साधु संगति मिलो, कँवल दल विकसि अनुराग गाओ॥
वेद विधि विसरि गै लोक लज्जा भजी पाँच अरि पकरि पैकर पेन्हाओ॥
भवो निस्सँक निर्वैर सब जीवते, ब्रह्म ब्रह्मंड भरपूर छाओ।
सन्त जन सूरमा लरत पग टर नहि देव तैंतीस दुंदुभी बजाओ।
दास धरनी कहत परम अनंदवत, जाय जगदीश को शीश नाओ॥1॥
221.
घट घट योगिया घमंड करै हो।
जटुआ न बटुआ न गेरुआ विभूति। लखि न परत थाकि गति अवधूती॥
योग करत कहुँ कहुँ रे भोग। कतहुँ औषध भेल कहुँ भैल रोग॥
वरत न करत न तिरथ अन्हाय। रहत निरंतर अवै न जाय॥
कहुँ भैल भूप व कतहुँ भिखारी। कतहुँ पुरुष हौल, कहुँ होल नारी॥
कतहुँ पंडित होय कतहुँ अजान। कतहुँ कृपिन भैख, कहुँ देल दान॥
धरनि कहत योगि वरनि न जाय। जहि भैल गुरु-गम, सेहि पतियाय॥2॥
222.
कोइ एक गुरु-गम कर तप।
पंडित दंडित हाथ न जोरै, समुझावै समुभौती।
चित चढ़ि सार झारि झटकारै, ज्ञान खरी मनभौनी॥
बिनु जिय-दया न बैठन पावै, क्या राजा क्या रानी॥
बिनु कागज बिनु कलम छुरी बिनु, बिनु मसि आँक बनौनी।
शब्दकि साट हिये हनि मारै, सहै सो लहै लखौनी।
चारि वेद शास्त्र नवो व्या-करन अठारह पौनी।
सनमुख निरखि निमिष एक मँहियाँ, ले धर लै पहुँचौनी॥
जानि जगत ओहदारी दारी, कर्म पंद अरुझौनी।
धरनीदास पड़े सत-संगति, वहुरि अवना अवनी॥3॥
223.
एक जाति मन-मोहन हो।
लोचन लीन अधीन लाल चित, यतन न वाको गोहन हो॥
माला तिलक जाप नहि मुद्रा, अंग विभूति न वोहन हो॥
वर्षा शीत ग्रीष्म नहि व्यापै, शीतलता, कछु कोह न हो॥
खात न पियत चलत नहि बैठत, सोवत पल एक वोहन हो।
ठाढो रहत सदा निशिवासर, विरले जन मगु-जोहन हो॥
तिरवेनी के पार निरेखो, प्रगटे परोहन की।
धरनी मन वच कर्मन मानो, आदि अंत नहि दोहन हो॥4॥
224.
घर सहज भवो उँजियारा।टेक।
जागो भाग भमरि अध भागो जबहिँ मिलो गुरु-द्वारा।
परम सुदिन दिन भवो हमारो, पाओ प्रान पियारा॥
मेटो मिमिर भरम भहरानो, व्रज कपाट उधारा।
हृदय कमल बिच मुरति मनोहर, तँह तन मन धन वारा॥
वन माखी लुवुधो मधु-माधव, नेकुन होत नियारा।
धरनि एक छबि वरनि न आवै, जानै जाननिहारा॥5॥