कन्याकुमारी और सूर्यास्त / रामनरेश पाठक
नीली उपत्यका में
सविताश्रम प्रतीक्षित है
इसका प्रत्येक परिपार्श्व
अनगिन रंगचित्रों से स्वप्निल है
विश्राम बंट रहा है
आँचल पसारकर बटोरते हैं
तट, मंदिर शिलाखंड, तरंगें, पुजारी, आरती के गीत
फूल, अक्षत, श्लोक, वाक्य, प्रदक्षिणाएँ, स्नान, निर्वेद
शंख, मालिकाएँ, फेन, शुक्ति, कौड़ियाँ, करुणा, प्रार्थनाएँ
और अनगिन सांध्य राग-रागिनियाँ
कन्याकुमारी चुप खो गई है
अपनी प्राण-प्रतिष्ठा के मंत्रों में
यज्ञ-धूम, ऋषि, इतिहास-पुरुष और एक संस्कृति
उसकी आँखों में अनुबिम्बित है.
बापू की शांत समाधि से उठती है
रघुपति राजा राम की ध्वनि
साष्टांग दंडवत में अनुचित्रित है सागर
प्रार्थनाएँ पी रहा है
अप्सराएं लौट रही हैं आश्रम को
सागर क्रीड़ाएं इंद्रधनुष, किलकारियाँ
और एक झंकृत सितार जी रहा है
निराला, नंदलाल, उदयशंकर, रवि शंकर
और बापू अणु-अणु में व्याप्त है यहाँ.
(मैं हूँ... नहीं हूँ... चित्र हूँ)
कन्याकुमारी और सूर्यास्त : अव्यय