कबूतर और मैं (1) / प्रताप सहगल
मेरे घर के आँगन में
एक कबूतर आकर
मेरे पास बैठ गया
पास, बिलकुल पास
मैंने उसे बाजरा खिलाना चाहा
वह फुर्र से उड़ गया।
फिर कोई और कबूतर आकर बैठा
उससे मैंने संवाद करना चाहा
वह भी फुर्र से उड़ गया
इस तरह से जो भी कबूतर मेरे पास आता
वह मुझे हरकत में आते देखते ही फुर्र हो जाता
यह मेरे लिए एक परेशानकुन बात थी
प्यार तो बाँधता है
प्यार तो जोड़ता है
फिर हर कबूतर
मेरे पास आते-आते फुर्र क्यों हो जाता है
तभी मुझे बचपन में सुनी
एक बहेलिए और बहुत सारे
कबूतरों की कहानी याद आई
आदमी कब बहेलिया हो जाए
कबूतर को क्या पता
शायद हर कबूतर ने
उस बहेलिए की कहानी सुन ली है
पीढ़ी दर पीढ़ी
जिसने दाना डालकर
बिछाया था जाल
और कबूतर को कबूतर होने से भी
महरूम कर दिया था
तभी से शायद
कबूतर ने आदमी पर
विश्वास करना छोड़ दिया है।