कभी चीनी कभी नमक / लीना मल्होत्रा
बहुत दिन हुए
जब हमने एक दूसरे को जाना ही था
और शुरू ही हुआ था हमारा रिश्ता
हमारे बीच एक सच रहता था
जनसँख्या के माल्थस के सिद्धांत की चर्चा करते हुए
हम एक दूसरे की आँखों में देखते थे
और तब सच
जिसकी इस सिद्धांत के बीच कतई ज़रूरत नही थी
एक खुरपी की तरह खोदता रहता ज़मींन
जिसकी मुलायम मिटटी में हम धंसते रहते गहरे
अपने रिश्ते की जड़ों को पाताल तक ले जाते हुए
फिर
सच एक प्रयोग था
जिसमे हमें अपनी ईमानदारी सिद्ध करनी थी
बताना था एक दूसरे को
कि कितनी गलतियाँ हम माफ कर सकते हैं
और कितने महान हो सकते हैं
हम समझाते रहते एक दूसरे को
कि रिश्ता सिर्फ सच की बुनियाद पर ही टिका है
और इसके सरकते ही भरभरा कर गिर पड़ेगी ये इमारत
कुछ दिन बाद जब बासी हो गई जिंदगी
बिजली के बिल से उबाऊ दिन और रिश्ते
तब बहाने
एक ताजगी से भरे चन्दन लेप की तरह छाने लगे
जिसके लबादे तले सच अपनी ऊब की झुर्रियों को लेकर
दम साधे पड़ा रहा बरसों
एक स्थगित होते मुकदमे की तरह
इसी इंतज़ार में की अंतिम निर्णय से पहले समझौता हो ही जाएगा
बूढ़े हो गये फिर दिन
और हम तुम,
हमारा रिश्ता और सच
सच के नीचे छिपा सच छिल छिल कर बाहर आया
तीखे व्यंग्य, ताने, तर्क और जिरह
और तमाम वो घटनाएं जिसका ज़िक्र हमे अधिक से अधिक आहत कर सकता था
हमने उकेरी
सुबह का अखबार शाम तक साथ साथ पढ़ते
बातें की
अहसान जताए
इस तरह सच ने साथ निभाया आखिर तक
कभी चीनी
कभी नमक
तो कभी मिर्ची बनकर.