करुण अति मानव का रोदन।
ताज, चीन-दीवार दीर्घ जिन हाथों के उपहार,
वही सँभाल नहीं पाते हैं अपने सिर का भार!
गड़े जाते भू में लोचन!
देव-देश औ’ परी-पुरी जिन नयनों के वरदान,
जिनमें फैले, फूले, झूले कितने स्वप्न महान,
गिराते खारे लघु जल कण!
जो मस्तिष्क खोज लेता है अर्थ गुप्त से गुप्त,
स्रष्टा, सृष्टि और सर्जन का कहाँ हो गया लुप्त?
नहीं धरता है धीरज मन!
करुण अति मानव का रोदन।