Last modified on 24 जनवरी 2020, at 19:54

कलकवती नदी / सरोज कुमार

पटारों से लेकर
ढलानों की फिसलन तक
बिखरे हैं इस पोथी के पन्ने!
अवसाद के कगारों से
पसरी है
एक कलकवती नदी!
फैले हुए चौड़े पाट
कुछ डूबे, कुछ टूटे घाट
कई जगह उथली है
जगह-जगह गहरी है
भीतर से बहती है
ऊपर से ठहरी है!

ऐसी चादर, जिसे मैंने
ओढा है, बिछाया है
लेकिन कबीर साहब की तरह
जैसी की तैसी
नहीं जा सकेंगी तहाई!

झरने के सफ़ेद धुएँ से लेकर
नीली आँखों वाली
नदी तक,
 नदी से बाँध
बाँध से बिजली
बिजली से लेकर अँधेरों तक फैले
अनुभवों की
कवायद करती चतुरगिणी!

प्रेम से लेकर प्रेम तक
विवाह से तलाक तक
तलाक से तन्हाई
तन्हाई से
अनाम सम्बन्धों के
मूक रिश्तों को भेदकर
निकलती, सुरंग जैसी
जिन्दगी!

मन तक पहुँचने की कोशिश में
शरीरों से खेलती,
अर्थ की तलाश में
शब्दों को झेलती,
बार-बार मिट-मिट कर
बार-बार बन-बन कर
अनेक आवृतियों में
एक ही उपस्थिति को
दुहराती तिहरती
वही-वही जिन्दगी!

कमरे से कक्षा तक
दरी से मंच तक
लिखने से दिखने तक
परिचितों से परायों तक
कितना लम्बा सफर रही है
यह हाँफती जिन्दगी

दो सौ साल जी लिया लगता है,
वैसे मरना
कौन चाहता है, मुर्दा भी नहीं!
पर और जीने की
जरूरत नहीं लगती!
दुहरा रहा हूँ स्वंय को!
यह दुहराना,
जिन्दगी की रिहर्सल नहीं है!
यह दुहराना,
मजबूत होना भी नहीं हैं!
चीजों के सध जाने के बाद का
ठहराव ठिठका हुआ है
इस हलचल में!

नया खेल चाहिए!
नए के नाम पर-
वही-वही खेल रचती है
नई-नई चालों से जिन्दगी!
इतना चल चुका हूँ, अब
नई चाल नहीं चल पाऊँगा!
इतना ही हो सकता था चालाक!

यों तो जितना
जिया जाए कम है
कब्र में लटका भी
मरना नहीं चाहता,
पुनर्जन्म का ढिंढोरची
पुण्यात्मा भी नहीं!
लौटना सम्भव नहीं है
इस यात्रा में!
यों कुछ पड़ावों पर
लौटने की इच्छा
बराबर रही सुलगती!

कुछ मोड याद आते हैं
जहाँ सही गलत मुडा था,
कुछ जोड़ याद आते हैं
जहाँ सही-गलत जुड़ा था।
रिवर्स गियर क्यों नहीं लगता
बहती हुई नदी में?
इतिहास में घुसकर
कुछ पन्ने फाड़ने-चिपकाने की
इजाजत क्यों नहीं है?

यात्रा जो हुई है
 और है,
वही एकमात्र है
अनन्त है
शरीर से साँस तक!

लगता है, बस
शरीर ही शरीर है!
मन भी है...
पर वह हो चुका है मुक्त,
मिल गया है उसे मोक्ष
सब कुछ पा जाने की
अनुभूति ही मोक्ष है!

अनुभूति तो होती है अनुभूति ही,
चट्टानों की छाती पर खड़ी हो
चाहे रेत के बगुलों पर
फर्क नहीं पड़ता है!

दो सौ साल जी चुका,
लगता है।
हजार साल भी जी सकता हूँ,
कोई प्रतियोगिता का
मामला नहीं है!