कलरव किसको नहीं सुहाता / सुमित्रानंदन पंत

कलरव किसको नहीं सुहाता?
कौन नहीं इसको अपनाता?
यह शैशव का सरल हास है,
सहसा उर से है आ जाता!

कलरव किसको नहीं सुहाता?
कौन नहीं इसको अपनाता?
यह ऊषा का नव-विकास है,
जो रज को है रजत बनाता!

कलरव किसको नहीं सुहाता?
कौन नहीं इसको अपनाता?
यह लघु लहरों का विलास है,
कलानाथ जिसमें खिंच आता!

रचनाकाल: १९२२

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