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कल्पवृक्ष… / कविता भट्ट

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मेरी छाँव में स्वागत तेरा, किंतु धूप तो मेरी ही है।
सारा दुःख अनागत मेरा, आस सदा ही लुटेरी है।

समय निष्ठुर, प्रारब्ध बुरा, दोष किसी का भी नहीं।
मुखर मात्र मनोभाव, आक्रोश किसी का भी नहीं।

बाती बन जलती प्रतिपल, प्रकाशित अधिकार तेरा।
नाम मेरे तुम लिख देना, असफलता व कुछ अँधेरा।

तेल नहीं था रक्त जलाया, दीपशिखा बुझने ना दी।
आत्मा लहूलुहान पड़ी, सहानुभूति भी तुमने ना दी।

पत्थर को भगवान बनाना, इतना भी तो सरल नहीं।
मन में अमृत- धार चाहिए, विषकुंभ का गरल नहीं।

कल्पवृक्ष के बीज रखे तुमने, मेरे सिरहाने चुने हुए।
इतना पानी देकर भी न उगे, संभवत: थे भुने हुए।

मुझे पता है - जीवन मरुथल, नहीं उगाएगा सपने।
किन्तु कृष्ण की गीता- देती ही नहीं पलक झँपने।

इसीलिए तो कल्पवृक्ष के- मैं बीज निरंतर बोती हूँ।
उन्हें सींचने की ही हठ- अश्रुजल से धरा भिगोती हूँ।

जो जीवट हो, वही जिएगा जग का है प्रपंच बड़ा।
नाटक जब हो जाता पूरा, तब हो जाता मंच खड़ा।