कल तक जो सूखी थी आज हुई धारा से,
मटमैली ये पूरे मन से बढ़ी हुई है।
ये नदिया मेरी धरती की भाग्यरेख है,
प्रकृति पुरुष का जैसे कोई ललित लेख है;
भाग रही ऐसे जैसी छूटी कारा से
मुँह संगम की ओर किए,
अनगढ़ता में भी शायद गढ़ी हुई है।
उम्र और अनुभव में है बहुतों से छोटी,
किंतु भाग्यहीनों की है ये रोज़ी-रोटी;
पूछ लीजिए इस छपरे या उस आरा से।
ये जीवन लासानी गाये-
तबले, ढोलक, ताँसों जैसी मढ़ी हुई है।
उत्स और संगम के आरपार बहती है,
सूखी हो या भरी साथ मेरे रहती है।
मँडराते हैं प्राण किनारे आवारा-से,
करती है अपनी मनमानी
मैं इसके, ये मेरे माथे मढ़ी हुई है।