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कविः भाव-पुरुष का प्रस्तोता / राघवेन्द्र शुक्ल

कवि! जीवन के मनस मंच पर
भाव-पुरुष का प्रस्तोता है।

घने विपिन के सन्नाटों में,
सुरभित सुमनों के कांटों में।
पर्वत के हठ, तरु की जड़ता,
निर्झर के स्वर की बर्बरता।
विविध घटों के जल में बिंबित
एक भाव का रवि होता है।

घन गर्जन की भय प्रतीति में,
दादुर की हर करुण गीति में।
झींगुर की झंकार वही है,
हर वीणा का तार वही है।
विविध सुरों की झंकृति में बस
एक वायु-आरति रोता है।

स्मृति मृत्तिका समयांतर की।
दीपावली अजन प्रान्तर की।
मरुथल की मृग-मरीचिकाएं,
तृष्णा- आशा- अभिलाषाएं।
कवि! जीवन के समर-यज्ञ का
ऋषी-ऋचा है, हवि-होता है।