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कविता: एक (बुनियादी तौर पर...) / अनिता भारती
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बुनियादी तौर पर हर औरत
मन से स्वतंत्र होती है
उसे नहीं भाता ढोंग
पर फिर भी करती है
लम्बा टिकुला
चूड़ी-भरे हाथ
सिन्दूर से भरा माथा
उसे कभी नहीं लुभा पाता
फिर भी करती है अभिनय
इसमें रचे-बसे रहने का
क्योंकि यही वह रास्ता है
उसके जीने का...!