कविताएँ वह रूठी हुई बेटियाँ हैं
जिन्हें सभ्यता के विकास ने जीने नहीं दिया
नमक, पानी और मिट्टी से जीवन की भीख माँगती
अंदर ही अंदर गलती रहीं
वो ढूँढती रहीं अपना ईश्वर
जिन्होंने जीवन देकर भी जीने का अधिकार नहीं दिया
बर्तन से लिपटी राख की तरह
बर्तन को चमकाती नालियों में बहती
कविताएँ ईश्वर का पता पूछती हैं।
उन बेटियों के मन के सवाल उन्हीं के साथ मिट्टी में दब गये
जो अब चिंगारी बन समूचा जंगल जला देती हैं
बरसती हैं तो बाढ़ बन पूरा गाँव डुबो देती हैं
कटी हुई मिट्टी के साथ बहते अपने कंकाल देख
थम जाती हैं
उन फूलों को चूम बहने देती हैं नदियों में
कि क्रोध की धधक ठंडी पड़ जाए
कविताएँ उसी राख में सुलग रही हैं।
कविताएँ वही बेटियाँ हैं
जो तुमसे प्रेम करने का अधिकार माँग बिलखती रहीं
नीली पड़ी देह खुली हुई आँखों को
प्रेम करने की सजा देते नहीं काँपे तुम्हारे हाथ
खूनी बन तुम किस इज्जत का ढोंग पीटते रहे
कि कविताओं के आँसू पन्ने पर बिखर रहे हैं।
कविताएँ वही मरी हुई बेटियाँ हैं
जो शरीर से सुहागन थीं पर मन कुँवारा रहा
हल्दी की महक अभी भी उनकी देह से फूट रही थी
जाते समय उन्होंने नहीं देखा उस परमेश्वर को
जो जीवन भर पत्थर बना रहा
जैसे अकेलेपन की सजा देकर चली गयी हों
कविताएँ उन्हें ओढ़ाई लाल चुनरी के गोटे-सी चमक रही हैं।
कविताओं वह बेटियाँ हैं
जो पूछती है ईश्वर का पता
जो प्रेम करती हैं नदियों, पहाड़ों, जंगलों से
जो नाचती है
बारिश में, रेगिस्तान में
उड़ती है ख़्यालों के आसमान में
जो प्रेम में धोखा खाने के बावजूद
प्रेम के वजूद पर ऐतबार करती हैं
जो कविताओं से प्यार करती हैं...