भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कविता : दोय / विजय सिंह नाहटा
Kavita Kosh से
बा ई रात डिगतीसी बंदरगाह माथै
पुहुपां री बा ई जूनी सौरम
बा ई प्रीत री कंवळास
बो ई काळ रो अखूट चक्कर
टीपणै री बा ई हूंस
बा ई भोर-सिंझ्या
दिन-रात लय बंध्या सा
बै ई जूण रा धुर सांच
बा ई गेलां री धूळ
बा ई मंजळां ढूकण री खाथावळ
बो ई उमर रो खजानो जी भर भंवूं
बा ई अनाम मौत
जिण रै भीतर बाअंडै कठै ई नीं हूं।