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कविता एक मुक़ाम है / नीलोत्पल
Kavita Kosh से
बातें कितनी ही छोटी क्यों न हों
घेर लेती हैं
रात-बेरात अक्सर हमारे पास
वक़्त नहीं होता
जबकि यह सिर्फ़ एक जवाब है
दरअसल
हमारा अपना चेहरा है
और बेमियादी कपड़े से
ढँके हैं अपना अवसन्न चेहरा
दिक़्क़त यही है
हम घिरी बातों के साथ नहीं होते
बस यह एक पक्षपात है
हमारे अधीन कितनी ही
चीज़ों की लंबित सूची है
जो हर बार ज़ाहिर होती है
ना कहने पर
नहीं के साथ
हमारी संगति
छोड़ देती है उन गुमनाम पहाड़ों पर
जहाँ कोहरा अधिकता में
ढाँप लेता छोड़ी हुई दिक़्क़तों को
हम कभी बाहर नहीं आ पाते
शब्दों का एक लम्बा हाईवे है
जो कहीं ख़तम नहीं होता
कविता एक मुक़ाम है
जहाँ घिरी बातों के साथ
हम पहुँचते हैं