उदासी कितनी ख़ूबसूरत होती है
कविता मुझे बरसों समझाती रही
घुमाती बियाबान सड़कों पर, ग़मगीन दुनिया,
ज़र्द चेहरों की कहानियाँ सुनाती रही
बैठाती रही दरख़्तों के नीचे
और बिखरे पत्तों को हथेली पर ले
बताती रही, पतझड़ ही निष्कर्ष है
एक दिन मैंने पूछ ही लिया
क्यों न वसन्त को ही मान लूँ निष्कर्ष
जितना सच पतझड़, उतना ही वसन्त है
जिऊँगा जितने दिन
रहूँगा, संग वसन्त के
मित्रो, यह तर्क-वितर्क चल रहा है अब तक
कविता और मेरे बीच।