मैंने बहुत बार
लिखनी चाही कविता
सम्वेदना से अभिभूत होकर
पर
लिखने तक सम्वेदना
चिथड़े-चिथड़े होकर बिखर जाती है
अब मैं
उन बिखरे हुए चिथड़ों को
समेट-सहेज कर
रखती हूँ.
करती हूँ कोशिश पहचानने की
हर चिथड़ा
होड़ लगा आगे आना चाहता है
बदहवास-सी मैं
सभी को पिरोना चाहती हूँ कविता में
इतने में
कान बजबजाने लगते हैं बच्चे की आवाज़ से
'मम्मी भूख लगी है'
सारे के सारे चिथड़े
उसके मुँह में ठूँस
हताश मैं
देखती हूँ
कविता को रोटी में बदलते हुए