कवि नहीं तुम / लता अग्रवाल
लिखने बैठती हूँ
जब कोई प्रेम कविता
गढ़ती हूँ सौंदर्य विधान कोई
दिखाना चाहती हूँ
शब्द चमत्कार
सोखकर स्याही खड़ी हो जाती है
कलम
कदमताल करते–करते अचानक
ऐंठकर कर देती है हड़ताल
कहती है,
ऐ मानव!
तुम्हें कवि होना न आया
स्वयम को सौंपा था मैंने
उंगलियों में तुम्हारी
बनोगे आवाज़, बेजुबानों की
करोगे प्रतिकार
निरपराधों की पीड़ा पर
अपनी संवेदना की आँच में
पकाकर शब्द
तोड़ोगे सनसनाती चुप्पी
अपनी क़लम की नोक से
उधेड़ोगे बखिया भ्रष्टाचार की
वादों की ज़मीन पर
आश्वासनों की उगी खरपतवार को
काट फेंकोगे
उकेरोगे चित्र
भूख और ग़रीबी के
गर्भ और कूड़े दान में
फैंक दो गई
बेटियों के रक्षार्थ
ललकार बनेंगे शब्द चित्र तुम्हारे
मिटती संस्कृति, टूटती धरोहरों के लिए
जुटाओगे आवाज़ ज़िंदा देह की
मगर अफ़सोस!
तुम तो क़ैद होकर रह गए
अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के अंधेरे गुहर में।