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कहते हैं रूह जिसको पलकर / देवी नांगरानी
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कहते हैं रूह जिसको पलकर भी पल न पाए
तन का हवन जला पर, ये मन पिघल न पाए
मिलकर बिछड़ने वाले मिलने की आस लेकर
कुछ ऐसे जी रहे हैं, अरमां मचल न पाए
उम्रे-रवां के नख़रे दुल्हन से कम नहीं हैं
जलवा शबाब का ये इक रोज़ ढल न पाए
मेरी नज़र ने तोड़ा हर इक भरम तुम्हारा
ये झूठ के मुखौटे सच में बदल न पाए
उस बेवफ़ा का शिकवा आता नहीं है लब पर
जो ज़िन्दगी से निकला, दिल से निकल न पाए
दातों तले दबा कर उंगली मैं सोचती हूँ
वो हुस्न क्या कि जिस पर आशिक़ फिसल न पाए
दुश्वारियाँ हज़ारों राहे-वफ़ा में, लेकिन
मँज़िल का अज़्म ‘देवी’ फिर भी बदल न पाए