कहाँ है, ओ अनंत के वासी ?
तू मन मे है फिर भी आँखे हैं दर्शन की प्यासी
प्रेम-भक्ति के तार भले ही मैंने तुझ से बाँधे
रह-रहकर उठ रहे विवादी सुर भी उनसे आधे
नयनों के सम्मुख दिखती है मुझको अंध गुफा-सी
कितनी बार परस तेरा मैंने मस्तक पर पाया
कितनी बार डूबते मुझको तू तट पर ले आया
फिर भी क्यों हटती न हटाये चिंता की गलफाँसी ?
नियम नियामक दोनों तू नियमों का हो दृढ पालक
पर न नियम क्या बने क्षमा के, भूल करे यदि बालक
गिरते-पड़ते भी जो तुझ तक आने का अभिलाषी ?
कहाँ है, ओ अनंत के वासी ?
तू मन मे है फिर भी आँखे हैं दर्शन की प्यासी