भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहानी हमारे प्रेम की / आलोक श्रीवास्तव-२
Kavita Kosh से
तुमने रंग कहा
मैंने राग
बहुत अलग थी तुम्हारी भाषा
मैं सोचने लगा
उन तमाम सपनों के बारे में
चुपचाप जिनकी पदचाप
मेरी नींद में दाखिल होती थी
हर रात !
तुम्हारी आंखें बंद थीं
धूप की एक पतली लकीर
चुपचाप उतर रही थी
तुम्हारी पलकों से
शाम की दहलीज पर
एक सूखा पत्ता रखा था
बरसों पुरानी कोई धुन गल रही थी हवा में
तुम बहुत ख़ुश थीं
मैं बहुत उदास
बस,
इतनी सी कहानी थी
हमारे प्रेम की ।