क़तरा-क़तरा कुछ / कुमार अनुपम
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छत से यह छिपकली मेरी देह पर ही गिरेगी
बदलता हूँ लिजलिजी हड़बड़ाहट में अपनी जगह
एक पिल्ला कुँकुआता है और मेरी नींद सहमकर
दुबक जाती है बल्ब के पीछे अँधेरी गुफ़ा में
यह मच्छर जो इत्मीनान से चूस रहा है मेरा ख़ून डेंगू तो नहीं दे रहा
(कैसे ख़रीद पाऊँगा महँगा इलाज)
लगता है कोई है जो खड़का रहा है साँकल
अगर
दिनभर की कमाई 26 रुपये 45 पैसे गए
तो मेरे कान में बोलेगा
अपनी खरखराती सरकारी आवाज़ में उत्पल दत्त-
-“ग़रीब!”
उसकी अमीर कुटिलता
बर्दाश्त करने की निरुपाय निर्लज्जता कहाँ से लाऊँगा
ये क्यों बज रहा है पुलिस-सायरन
मेरी ही गली में बार-बार
ठीक ही किया
जो पिछवाड़े का बल्ब जलता भूल गया
(इस बार तो कट कर ही रहेगा बिजली का कनेक्शन, तय है)
तरा-क़तरा कुछ
मुझमें भरता समुद्र हुआ जा रहा है ।