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क़ैदी के पत्र - 9 / नाज़िम हिक़मत

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कल रात सपने में मुझे तुम दीख पड़ीं
तुमने सिर ऊँचा कर
अपनी उन अम्बर-सी आँखों से मुझे देखा।
तुम्हारे भीगे होंठ हिल रहे थे
लेकिन तुम्हारी आवाज़ मैं न सुन सका।

अन्धेरी रात में कहीं घड़ी हर्षपूर्ण समाचार-सी बोली।
सुनने लगा हवा में अनन्त का फुसफुसाना
मैंने सुना ’मेमो का गीत’ अपने कनारी के लाल पिंजरे से,
किसी जुते केत में
पृथ्वी में अंकुरित हो रहे बीजों के फूटने की आवाज़ आने लगी
और किसी यशस्वी भीड़ ने न्यायोचित कलरव किया।
तुम्हारे भीगे होंठ हिल रहे थे
लेकिन तुम्हारी आवाज़ मैं न सुन सका।
ग़ाली देता हुआ मैं जग उठा।
नींद आ गई थी मुझे — मेरा सिर किताब पर था,
लेकिन उन सारी आवाज़ों के बीच क्या
मैंने तुम्हारी आवाज़ भी नहीं सुनी?

अँग्रेज़ी से अनुवाद : चन्द्रबली सिंह