काँप रही क्यों कलम / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
काँप रही क्यों आज अंगुली कलम चलानेवाले?
कभी सहमते नहीं राह पर मंज़िल जानेवाले!
चाँद कभी भी नहीं छिपा, उमड़ीं घनघोर घटायें
नहीं रूकी है कभी बाँध पर लहरों की कवितायें!
जली नहीं है कभी आग में अरमानों की सीता
गा सकती है शान्ति-स्वरों पर कभी बाँसुरी गीता!
देख रहे हो समय? भूल है ओ विराट मतवाले!
काँप रही क्यों आज अंगुली कलम चलानेवाले?
बढ़ो! समय की आग सुलगती लेकर नयी जवानी
उठो! बुलाता है तुमको इस पार एक अभिमानी,
रुकी कहीं यदि कलम, धरा की चाल बदल जायेगी
कलम रुकी तो विश्व-शांति की गाथा जल जायेगी।
जगो! आँधियों में विकास का दीप जलानेवाले!
काँप रही क्यों आज अंगुली, कलम चलानेवाले?
कलम चलानेवाले इसकी मर्यादा तोड़ो मत
त्याग, साधना की गागर में विष के कण छोड़ो मत,
यह तो ऐसी राह कि जिस पर जला हुआ जीता है
यह है ऐसा खेत-हृदय का रक्त-विंदु पीता है!
क्यों सीमा का मोह रूको मत पाँव बढ़ानेवाले!
काँप रही क्यों आज अंगुली कलम चलानेवाले?