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काँव-काँव करती / नईम
Kavita Kosh से
काँव-काँव करती रह गई सुबह।
बाँग दिए बिना आज उड़ गए विहान।
किरन बुहारू देने कौन उठे?
बच्चे भी उठे, किंतु मौन उठे।
जला नहीं चूल्हा, चौका उदास,
बहू समय से पहले हुई सास।
खटियों पर पड़े रहे खाँसते हुए मकान।
चीख रही रात पर नुची भीतर,
पिंजड़े में पड़े हुए भटतीतर।
बस्ती से पनघट भी दूर हुए
घाट सोन के थककर चूर हुए।
तीर नहीं लौटे तर्कश में, उतरी कमान।
शुभारंभ खड़े हुए मुँह बाए,
अनाहूत अतिथि द्वार पर आए।
किसको उत्तर, किसको दक्षिण दूँ?
दान नहीं दे पाता, कैसे मैं ऋण दूँ?
बाहर दिन बुला रहे, पैरों लिपटी थकान।