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काका-काकी ने देखी हॉकी / सूर्यकुमार पांडेय
Kavita Kosh से
हम भी देखेंगे अब हॉकी, घर से निकले काका-काकी।
लेकर संग में चाय, मिठाई, हलवा, पूरी और मलाई,
कपड़े पहने खाकी-खाकी, संग में नौकर चला बुलाकी।
हुआ भीड़ में धक्कम-धक्का, घुसकर बैठे कक्की-कक्का,
हम देखेंगे पहले हॉकी, सब करते थे ताका-झाँकी।
एक अगाड़ी, एक पिछाड़ी, दौड़ रहे थे सभी खिलाड़ी,
गेंद संग चलती थी हॉकी, दिखा रहे थे सब चालाकी।
हुआ गोल तब उछले काका, छुटे पटाखे, धूम-धड़ाका,
आँख मूँदकर बैठीं काकी, मारे डर गिर पड़ा बुलाकी।
रुका खेल मध्यान्तर आया, नौकर से जलपान मँगाया,
खाते-पीते काका-काकी, चीज़ न कोई छोड़ी बाक़ी।
मैच हो गया ड्रा, इठलाते, लौटे काका, हँसते-गाते,
ख़ुश थे काकी और बुलाकी, बड़े मज़े की होती हॉकी।