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कागजि विकास / धनेश कोठारी

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घाम लग्युं च कागजि डांडों

काडों कि च फसल उगिं

आंकड़ों का बांगा आखरुं मा

उखड़ कि भूमि सेरा बणिं

 

ढांग मा ढुंग ढुंग मा ढांग

माटा भिड़ौन गाड़ रोक्युं

बार बग्त आंदा भ्वींचळों

पर च, अब बाघ लग्युं

आदत प्वड़िगे हम सौंणै

अर ऊं धन्नै कि डाम

औंसी रात बिचारी गाणिं

खणकि जोनी का सारा लगिं

 

धारा पंदेरा छोया सुख्यां

रौला-बौला बगणा छन

स्वर्ग दिदा हड़ताल परै च

खणकि रोपण लगणा छन

दिन गगड़ांद द्योरु रोज

बिजली कड़कदी धार मा

हौड़ बिनैगे भटका भटकी मा

आयोडैक्स कु ख्याल ही नि

 

झुनकौं उंद छन झिलारी बासणी

ल्वत्गी लफारी गळ्बट गिच्च

मुसा का छन पराण जाणा

बिराळा कु तैं ख्याल च सच्च

दौंळ् बोटण कु सेळु नि

घणमण घंडुलि अछणा धरिं

फौंर्याई मन भैलू लेकि

अंधेरा कु तैं शरम ही नि