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कागज का मुकुट/ प्रताप नारायण सिंह

मनुष्य सोचता है कि
वह ऋतुओं से अधिक जानता है,
बादलों की पुरानी गणित से
या रात्रि के इतिहास से भी अधिक।

पर धरती के अंदर
बीज अपने नियम लिखते हैं,
जिन पर समय की स्याही से
जड़ें हस्ताक्षर कर देती हैं।

छत से टपकता पानी
ईंटों पर दाग बनाता रहता है,
जैसे कि स्मृतियाँ
दीवारों को धीरे-धीरे खाती हों
और जब दरवाजा खोलो,
तो लकड़ी की कराह सुनाई देती है।

गली से गुजरते हुए
चेहरों पर परछाइयाँ खिंच जाती हैं;
कोई मेरी आँखों से बचता है,
कोई मुझे भीड़ में खो देता है।

फिर अचानक
मोड़ पर एक बच्चा दिखता है
जिसने अपने माथे पर
कागज का मुकुट बाँधा है।
वह मुस्कुराकर
मेरा अभिवादन करता है,
मानो कह रहा हो-
ज्ञान नहीं,
खेल ही जीवन को टिकाए रखते हैं।