कानपुर / केदारनाथ अग्रवाल
चोटों पर चोटें जो घन की
खा कर कभी नहीं तड़की है,
उस हड्डी पर--उस पसली पर
श्रमजीवी की उस छाती पर,
कानपुर का शहर सजीला,
कई मील के लम्बे-चौड़े
मिलों कारखानों को घेरे
घण्टाघर ले बसा हुआ है ।
कंकड़, पत्थर, कोलतार की
काली-काली चौड़ी सड़कें--
दूकानों का बोझा लादे
गहरी निद्रा में लेटी हैं ।
कई टनों के पर्वत जैसे
सड़क कूटने वाले इंजन,
मनों बोझ के टायर पहने
चलने वाले लाखों मोटर,
लोहे की पटरी की सड़कें,
भारी-भरकम रेलगाड़ियाँ,
उस हड्डी पर--उस पसली पर
चलने-फिरने में तन्मय हैं ।
घाट, धर्मशाले, अदालतें,
विद्यालय, वेश्यालय सारे,
होटल, दफ़्तर, बूचड़ख़ाने,
मन्दिर, मस्ज़िद, हाट, सिनेमा,
श्रमजीवी की उस हड्डी से
टिके हुए हैं--जिस हड्डी को
सभ्य आदमी के समाज ने
टेढ़ी करके मोड़ दिया है !!
कानपुर की सारी सत्ता--
श्रमजीवी की ही सत्ता है !
कानपुर की सारी माया
श्रमजीवी की ही माया है !!