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काना-लंगड़ा राजा / कुमार मुकुल

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यह फ़िल्म

दुबारा नहीं देखी जा सकती

जैसे नहीं पढ़ी जा सकतीं दुबारा

विष्णु खरे की कुछ कविताएँ


अख़बार अब

सुर्ख़ सादे हैं

पत्रकार ख़बरें नहीं लिखते

अपना-अपना बीट देखते हैं


इस तरह तो

असह्य हो जाएगा यह मुलुक


मुल्क तो यह

सहिष्णु होता था कभी

उनका तो यही दोषारोपण है

जो सुरमयी रामराज

फैला रहे हैं आज


परमाणु बमों की गरमी ने तो

नहीं फैलाई यह वीभत्सता, तूफ़ान, भूकंप

या कुंभ की तिरबेणी

संभाल नहीं पा रही सारा पाप

शीत का दौर बाक़ी है अभी

चांद जैसे ठिठुरन फैला रहा है


पाजामा और चादर में डगमगाता

यह कौन चला आ रहा है

ठंड की मार है यह

या पी रखी है उसने


हमारे मुल्क ने भी चढ़ा रखी है शायद

और झटके खाता

अमेरिकी चरणोदक पी रहा है


अब राजभाषा-भाषी, ब्रह्मचारी कविराय

अगर दैनिक अंडा-मुर्गा का

म्लेच्छ भोजन करने लगें

तो यही तो होगा


काने रिक्शा वाले पर अशुभ के खयाल से

बैठने से रोकने वाले पंडत जी

काना-लंगड़ा राजा

अब कैसे भा रहा है आपको।