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कालरात्रि / बसन्तजीत सिंह हरचंद

मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना
यह है कि वह
मृत्यु से पहले मर नहीं सकता .

मृत्यु को चाहे वह
अपने समस्त सशस्त्र दु:खों की
काल - रात्रि मान ले,
मृत्यु में चाहे वह
मुक्ति के अनन्त नीलाकाश को देखे ,
किन्तु मृत्यु का हिंस्र भय
जब अकेलेपन की उजाड़ गलियों में,
दबे पाँव
उसका पीछा करता है,
तो मनुष्य - साहस के दृढ़ पाँव
उखड़ जाते हैं ,
और वह
भाग खड़ा होता है .

मरना
यम के चरणों में
कोई सुमन भेंट करना
अथवा
फटा वस्त्र उतार देना नहीं ,
अपितु अपने तीक्ष्ण नखों से
छाती को फाड़कर
लतपथ कलेजा
निकाल फेंकना है .

प्रत्येक मोड़ पर मिलने वाले
आक्रामक रोग,
खिन्न विषाद और
निर्धन चिथड़ों में
क्या मृत्यु ही नहीं झाँकती फिरती ?
मनुष्य की निम्न - गामिनी धरा - यात्रा
निराश अंधकारों की
नरक -गाथा है,
जिसमें से विचरते समय
स्वयम्भू सूर्य भी बुझने लगता है ,
उसके उज्ज्वल प्रकाश
मैले पड़ जाते हैं ,
और
दृष्टि धुँधला जाती है

जीवन
कंटकित विवशताओं - भरी
एक ऐसी अंध कारा है,
जिसमें से भाग निकलने का
एक ही द्वार है
और
वह है मृत्यु .

क्या मृत्यु भी
एक अज्ञात अन्धकार का
प्रवेश - द्वार नहीं है ?----
जिसकी दिग्भ्रांत यात्रा में
पृथ्वी की नन्हीं प्रीति - शिखा ही,
मनुष्य के हाथ में
धूमकेतू - मशाल बन जाती है ,
जो बुझ जाने पर भी
अपने उजालों से ,
आगे - आगे चलकर
मार्ग दिखाती है .

यह जीवन - यात्रा
अन्धकार से अन्धकार
तक की है ,
जिसमें होने वाली
सबसे बड़ी
दुर्घटना
मृत्यु नहीं , जन्म है ..

(समय की पतझड़ में ,१९८२)