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कालिजाई / गोदावरीश मिश्र / दिनेश कुमार माली

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रचनाकार: गोदावरीश मिश्र (1886-1956)

जन्मस्थान: बाणपुर, पुरी

कविता संग्रह: कुसुम(1919), कलिका(1921), किसलय(1922), आलेखिका, कवितायन(1926), चयनिका(1932), गीतायन(1953), गीति गुच्छ(1960)


अच्छे से नाव चलाओ नाविक
बिटिया को लगता है डर
टापू पर प्रतीक्षा में होंगे भाविक
बिटिया जाएगी सासुघर।
अच्छे से नाव चलाओ नाविक
पाल को करके खड़ा
‘मामा-भांजा’ कोने से
आ रही ठंडी- ठंडी हवा
दिन का पहला पहर
पड़ने लगी धूप प्रखर
पांच कोस जाना दूर
समय बचा नहीं भरपूर

(2)
नाविक बेचारा,
चलाने लगा चप्पू फरफर
गाते दर्द भरे गीतों के स्वर
नाव उड़ाते पवन प्रखर
पता नहीं चलने लगी डगर
माँ-बहिन ,सहेली-सहोदर
छोड़ आई पीछे नगर
करने लगी उनकी फिकर
परिजनों से अब दूर
 कब होगा फिर यहाँ सफ़र
नाव पल में करने लगी पार
वन-गिरि चिर-परिचित घरबार
देखती जाती अपलक लगातार ।

घंटशिला शिखर से ले रही अलविदा
जा रही हूँ घोर-जंगल, होकर अब जुदा
शालियानदी उसके बचपन की मीत
 तट पर उसके गाती वह सुगम-संगीत
भोर--भोर रवाना हुई बिना किए प्रणाम
सुप्रसिद्ध नदी, सुदूर तक फैला उसका नाम
भगवती पीठ-कूल पर ‘जगत-तारिणी’ माँ
विनती भी न कर सकी,"सहायक बनो ,हे माँ !"

(3)
देखते- देखते नाव स्थिर
पहुंची चड़ेईहगा-भूधर
घंटशिला रह गई उधर
पीछे शालियानदी बालूचर
पल में पहुंची नाव गहरे गव्हर
लगातार बह रही उसकी अश्रुधार
भीग गई साड़ी की सारी किनार
“जानती नहीं थी,
पारीकूद टापू भी चिलिका में
कैसे निर्णय लिया पिता ने
बेटी को इतनी दूर देने का ?
वर देखकर छुड़ा दिया अपना हाथ
ऐसा क्या देखा उस लड़के में ?
उसके रूप, विद्या और वैभव में  ?
मुझसे और ज्यादा इस
दुनिया में शायद कोई होगा नहीं दुखी ?
पापा, कैसे काटूंगी मैं दिन
इस महासमुद्र बीच  ?
अगर मुझे इतनी गई-गुजरी
समझते थे, तो जन्मते ही
मेरा गला क्यों नहीं दिया घोंट ?
माँ, बिना सोचे समझे
मुझे जंगल भेज दिया सचोट
जो मेरे नसीब में था
वह मुझे मिला।
मगर अपने दिल के
टुकड़े को भूल न जाना।”

(4)
नाव उड़ने लगी मारुति समान
एक पल भी रूके बिन
बिटिया बैठी दुखी मन
रोते- रोते किए लाल नयन

“नाँव चल रही जल्दी
पार करती जलधि
चुप हो जाओ 'जाई'
मत रो मेरी बाई
दिखने लगी टापू-खाई ।”

कहते पिता ने पोंछी अश्रु-धारा
समझाया उसको बारम्बार
बिना किसी आडम्बर

"अच्छे से नाव चलाओ नाविक
बिटिया को लग रहा है डर
सोच रही,कितनी जल्दी जांऊ सासुघर।”
(5)
अच्छे से नाव चलाओ, ऐ नाविक
चलाओ चप्पू कसकर
सांय- सांय हवा में लगे न रास्ता कष्टकर
नाव तैरती पहुंची गहरे-भंवर
नाविक गया जबरदस्त डर
चप्पू चलें न इधर, न उधर

‘भालेरि’ शिखर से काले बादल
उमड़े अचानक अगल-बगल
सूर्य भी उनकी ओट में ओझल
धूप हो गई जैसे काजल
बादल गरजने लगे सजल
तेज आंधी हुई प्रचल
दिन दिखने लगा श्यामल
नांव फंस गई भंवर-जल
डूब जाए जहाँ गज-युगल
नाव होने लगी डांवाडोल
भयभीत नाविक का चेहरा गया बदल
“अच्छे से, तेजी से चलाओ नाविक
नाव करने लगी हिलडुल
देख आंधी तूफान नभतल
डरने लगी बेटी चुलबुल।”

तभी आई आंधी भयंकर
हो गई नाव अस्थिर
प्रचंड-पवन प्रगल्भ-लहर
कर दिया उसे चकनाचूर
पहाड़ से थोड़ी दूर ।

(6)
मेघ चले गए अपनी राह
आंधी-तूफान की थामकर बाह
आकाश साफ एकदम, आह !
कलरव करने लगा जल-प्रवाह।

पिता ने पूछा,कहो, नाविक
"मेरी बेटी गई कहाँ ? '
आँखें मूँद खड़ा निर्वाक-नाविक
चिलिका झील में लहरें
शीतल हवा
हल्की धूप
हजारों नावें
आकाश में चिड़ियाँ
ये कैसा भ्रम ?
पानी में छाया
ये कैसी माया ?
‘जाई’ के अलावां सब सामान्य

(7)
पिता लौटे माँ पास
अनकहे रुक गई सांस
दूसरे दिन नाविक चला उसी रास्ते ख़ास
हजारों साल बाद भी रहस्य का हुआ नहीं पर्दाफाश
पर अब तक नहीं मिली उस 'जाई' की लाश ।
आज भी पारिकुद टापू के निर्जन पहाड़ और आकाश
डालते है जाई के आलौकिक जीवन पर प्रकाश
तब से चक्रवात से चिलिका में हुआ नहीं और कोई विध्वंस
आपत्तिकाल में लगाते हर कोई रक्षा की यहाँ आस ।
नाविक जाते उसी रास्ते जुहार के विश्वास।

(8)
उस पहाड़ के शिखर पर
भक्तों ने बना दिया भव्य मंदिर
समुद्र के बीच भला कौन रहेगा शूर-वीर
सूर्यास्त के समय सुनसान होने पर
जाई की दिव्यात्मा दिखती उस पर्वत-शिखर
दोनो आँखों से बहती अभी भी अश्रु-धार
मगर वरद-हस्त देते अभय वर
कालिजाई के अथाह जल में अब नहीं कोई डर।
आते नहीं हैं आंधी-तूफान,चक्रवात प्रखर
तब से डूबी नहीं कोई नांव चिलिका भीतर
कालीजाई प्रत्यक्ष देवी,कोटि- कोटि नमस्कार
पहाड़ नाम प्रसिद्ध हो गया कालीजाई-भूधर ।