कालिदास / रामधारी सिंह "दिनकर"
कालिदास
समय-सिन्धु में डूब चुके हैं मुकुट, हर्म्य विक्रम के,
राजसिद्धि सोई, कब जानें, महागर्त में तम के।
समय सर्वभुक लील चुका सब रूप अशोभन-शोभन,
लहरों में जीवित है कवि, केवल गीतों का गुंजन।
शिला-लेख मुद्रा के अंकन, अब हो चुके पुराने,
केवल गीत कमल-पत्रों के हैं जाने-पहचाने।
सब के गए, शेष हैं लेकिन, कोमल प्राण तुम्हारे,
तिमिर-पुंज में गूँज रहे ज्योतिर्मय गान तुम्हारे।
काल-स्रोत पर नीराजन-सम ये बलते आये हैं,
दिन-मणि बुझे, बुझे विधु, पर ये दीप न बुझ पाये हैं।
कवे! तुम्हारे चित्रालय के रंग अभी हैं गीले
कली कली है, फूल फूल, फल ताजे और रसीले।
वाणी का रस-स्वप्न खिला था जो कि अवन्तीपुर में,
ज्यों का त्यों है जड़ा हुआ अब भी भारत के उर में।
उज्जयिनी के किसी फुल्ल-वन-शोभी रूप-निलय से
विरह-मिलन के छन्द उड़े आते हैं मिले मलय से।
एक सिक्त-कुंतला खोलकर मेघों का वातायन
अब तक विकल रागगिरि-दिशि में हेर रही कुछ उन्मन।
रसिक मेघ पथ का सुख लेता मन्द-मन्द जाता है,
अलका पहुँच संदेश यक्ष का सुना नहीं पाता है।
और हेतानाशनवती तपोवन की निर्धूम शिखाएँ
लगती है सुरभित करती-सी-मन की निखिल दिशाएँ।
एक तपोवन जीवित है अब भी भारत के मन में,
जहाँ अरुण आभा प्रदोष की विरम रही कानन में।
बँधे विटप से बैखानस के चीवर टँगे हुए हैं,
ऋषि रजनीमुख-हवन-कर्म में निर्भय लगे हुए हैं।
मुनिबाला के पास दौड़ता मृगशावक आता है,
ज्यों-त्यों दर्भजनित क्षत अपने मुख का दिखलाता है।
वह निसर्ग-कन्या अपने आश्रमवासी परिजन को
लगा इंगुदी-तैल, गोद ले सुहलाती है तन को।
बहती है मालिनी कहीं अब भी भारत के मन में,
प्रेमी प्रथम मिला करते जिसके तट वेतस-वन में।
प्रथम स्पर्श से झंकृत होती वेपथुमती कुमारी,
एक मधुर चुम्बन से ही खिलकर हो जाती नारी।
दर्भाकुश खींचती चरण से, झुकी अरालासन से
देख रही रूपसी एक प्रिय को मधु-भरे नयन से।
इस रहस्य-कानन की अगणित निबिडोन्नतस्तनाएँ,
कान्तप्रभ शरदिन्दु-रचित छवि की सजीव प्रतिमाएँ,
हँसकर किसकी शमित अग्नि को जिला नहीं देती है?
किस पिपासु को सहज नयन-मधु पिला नहीं देती है?
अमित युगों के अश्रु, अयुत जन्मों की विरह-कथाएँ,
अमित जनों की हर्ष-शोक-उल्लासमयी गाथाएँ,
भूतल के दुख और अलभ सुख जो कुछ थे अम्बर में,
सब मिल एकाकार हो गए कवे! तुम्हारे स्वर में।
किसका विरह नहीं बजता अलकावासिनि के मन में?
किसके अश्रु नहीं उड़ते हैं बनकर मेघ गगन में?
किसके मन की खिली चाँदनी परी न बन जाती है?
वन कन्या बन लता-ओट छिप किसे न ललचाती है?
कम्पित रुधिर थिरकता किसका नहीं रणित नूपुर में?
मिलन-कल्पना से न दौड़ जाती विद्युत किस उर में?
गीत लिखे होंगे कविगुरु! तुमने तो अपने मन के,
झंकृत क्यों होते हैं स्वर इनमें त्रिकाल-त्रिभुवन के?