काली नहीं थी
कोई बंग
वस्त्र भी नहीं थे
मिट्टी सने जीवाश्म
जो तलाशे हैं आज
बोरंग चूनरी
केसरिया कसूम्बल में
सजी सुहागिनें
खनकाती होंगी
सुहाग पाटले
लाल-पीले-केसरिया
वक़्त के विषधर ने
डाह में डसा होगा
तब ही तो उतरा है
रंग बंग पर काला
कालीबंगा करता
सोनल अतीत को।
राजस्थानी से अनुवाद : मदन गोपाल लढ़ा