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काश! मैं कुत्ता होती / आशुतोष सिंह 'साक्षी'
Kavita Kosh से
जाड़े में सिमटी हुई,
ठंड से ठिठुरती हुई,
चिथड़ों में लिपटी हुई,
नंगे पाँव फर्श पर बैठी एक बुढ़िया॥
सामने थाली में रखे सूखी रोटी को
तोड़ती अपनी कंपकंपाती हुई उंगलियों से॥
ये सोच रही है कि भूख की अग्नि भी
बूढ़े शरीर को गर्मी नहीं दे पाती॥
सामने जंज़ीर से बँधा तन्मयता से,
बैठा हुआ कुत्ता।
उस बुढ़िया की थाली की तरफ़
नहीं देख रहा है॥
मानो वह कुत्ता उस बुढ़िया को,
मुँह चिढ़ा रहा हो।
उस कुत्ते का मालिक कुत्ते को,
पुचकार रहा है और,
वह बुढ़िया यह सोच रही है कि
काश मैं भी कुत्ता होती,
तो मेरा ये बेटा इस झबड़े कुत्ते की जगह
अपनी इस बूढ़ी माँ को प्यार करता॥